'तीसरा नेत्र” का द्वितीय खण्ड आपके समक्ष प्रस्तुत है। इस 'खण्ड' के विषयों को संकलित करने में विशेष रूप से किसी प्रकार की समस्या उपस्थित नहीं हुई। लेकिन संकलन काल में अनेक प्रकार की जिज्ञासाओं का उदय अवश्य हुआ हृदय में। पिताश्री अरुण कुमार जी शर्मा द्वारा उन महत्वपूर्ण जिज्ञासाओं का समाधान अति आवश्यक था। इसके लिए सर्वप्रथम मैंने अपनी प्रमुख जिज्ञासाओं की प्रश्न रूप में एक सूची बनाई और उसे पिताश्री के सम्मुख प्रस्तुत की। उन्होंने सूची देखकर कहा- ऐसे नहीं होगा। जिज्ञासा गम्भीर है अपने आपमें। तुम प्रश्न करो, और मैं उसका समुचित उत्तर दूंगा। यह सुनकर प्रसन्नता हुई मुझे | एक दिन अवसर देखकर मैंने पूछा- हिमालय और तिब्बत यात्रा काल में आपने जिन सिद्ध साधकों और सन्त-महात्माओं का दर्शन लाभ किया | उनसे आपका साक्षात्कार पूर्वनियोजित था अथवा उसे संयोग मात्र कहा जाएगा ? सब कुछ पूर्व नियोजित होता है | उसके अनुसार जब भौतिक रूप में घटना घटती है तो उसे संयोग कहते हैं | क्या उन महान और दिव्य पुरुषों का अस्तित्व आज भी है?
.. अवश्य! | पिताश्री ने कहा- अतीत में भी था और भविष्य में भी रहेगा उनका अस्तित्व | क्या उनका दर्शन और उनका सानिध्य लाभ सभी के लिए संभव नहीं है ? नहीं , वही व्यक्ति ऐसे महात्माओं के सम्पर्क में आ सकता है, उनका सानिध्य लाभ कर सकता है और उनका दर्शन लाभ भी कर सकता है , जसमें पिछले कई जन्मो का साधना सस्कार प्रसुप्त अवस्था द्यमान हैं। उसी प्रसुप्त संस्कार के उन्मेष से आत्मा
जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म जहाँ भारतीय धर्म एवं संस्कृति की मूल भित्ति हैं वहीं अपने आप में अत्यन्त गूढ़ गोपनीय और रहस्यमय हैं। प्रारम्भ से ही इनके तिमिराच्छनन विषयों के...
द सन् १६४८ ई. से १६७८ ई. की काल सीमा के अन्तर्गत योग-तंत्र .. से संबंधित अपनी आध्यात्मिक पिपासा को शान्त करने के उददेश्य से जिन प्रच्छन्न और अप्रच्छन्न सिद्ध साधकों, महात्माओं और योगियों से मेरा सत्संग लाभ हुआ और सत्संग के क्रम में जो गुह्य ज्ञान उपलब्ध हुआ जो अलौकिक अनुभव हुए और साथ ही जो अवर्णनीय परानुभूति हुई मुझे | निश्चय ही वह अतिमहत्वपूर्ण आध्यात्मिक सम्पत्ति समझी जायेगी इसमें सन्देह नहीं | उन्ही सबका परिणाम है 'कारण पात्र' |
आरतीय आध्यात्म का मुख्य विषय है योग और तंत्र | इस विश्व भ्रमांड में में दो सत्ताएं है - आत्मपरक सत्ता और वस्तुपरक सत्ता | पहली आतंरिक है और दूसरी सत्ता बाह्य हैं। आत्मपरक सत्ता का संबंध अंतर्जगत से है और जिसका विषय है आत्मा|| इसी प्रकार वस्तुपरक सत्ता का संबंध है बहिर्जगत से यानी भौतिक जगत से और जिसका विषय है मन | आत्मा और मन | दो सत्ताओं की तरह इस विश्व ब्रह्माण्ड में एक मूल तत्त्व भी है जिसे आध्यात्मिक भाषा में परमतत्व भी कहते हैं। और उस परमतत्व के दो रूप हैं - आत्मा और मन | लेकिन दोनों का स्वभाव भिन्न- भिन्न है आत्मा स्थिर है | स्थिरता और साक्षी भाव उसका गुण जबकि मन है अस्थिर | अस्थिरता और चंचलता उसका गुण है|
कुण्डलिनी साधना प्रसंग में बहुत सारे प्रसंगों का वर्णन एवं अलौकिक चमत्कारपूर्ण घटनाओं का भी उल्लेख है। जिसे पारलौकिक जगत भी कह सकते हैं। विश्व जगत में तीन मुख्य जगत...
कुण्डलिनी-शक्ति उस आदिशक्ति का व्यष्टि रूप है, जो समष्टि रूप में सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड में चैतन्य और क्रियाशील है । जहाँ तक कुण्डलिनी-शक्ति की प्रसुप्तावस्था की बात है, तो उसके सम्बन्ध...
यह जगत स्वयं अपने आप में प्राकृतिक घटना है और हमारा जीवन उस घटना का विस्तार है। उस विस्तार में कभी-कभी ऐसी घटनाएं घटती हैं जो अपने आप में अविश्वसनीय...
गुरुजी की काफी दिनों से इच्छा रही ज्योतिष पर पुस्तक लिखने की जो २००८ में कालपात्र नाम से पूर्ण हुआ | उनका कहना था कि ज्योतिष का सम्बन्ध जितना देश काल पात्र से है उतना ही योग और तंत्र साधना से भी है। गुरुजी का ज्योतिष शास्त्र पर पुस्तक लिखने का उद्देश्य था कि जन सामान्य व प्रबुध्द पाठकगण ज्योतिष शास्त्र से सम्बन्धित विषयों का ज्ञान हो तथा अपने जीवन में उसका सद्पयोग करें | गुरुजी ने योग-तंत्र के साथ-साथ ज्योतिष शास्त्र पर भी गहन शोध किया और सामान्य भाषा में प्रस्तुत करने का भरसक प्रयास भी किया। उनका कहना था कि वेदों के समान भारतीय ज्योतिष शास्त्र की प्राचीनता है और है महत्व । अथरव॑वेद के ६५ ऋचाओं में ज्योतिष सम्बंधित ज्ञान वर्णित है देखा जाए तो सम्पूर्ण ज्योतिष शाश्त्र सूर्या, चंद्र , और नक्षत्रों के सूक्ष्म अवलोकन पर ही आधारित है
भारतीय प्रज्ञा ने सर्वप्रथम नक्षत्रों तथा उनके संचरण और उनके ऊर्जा के प्रभाव को अपने शोध और खोज का आधार माना |
... भारतीय प्रज्ञा के मतानुसार ज्योतिष शास्त्र खगोलीय ज्ञान का महत्वपूर्ण अंग है। इसके बिना ग्रहों की वास्तविकता और उससे सम्बन्धित गहन सत्य को प्रगट नहीं किया जा सकता है