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कर्मयोग
कर्म शब्द 'कृ ' धातु से निकला है; 'कृ' धातु का अर्थ है -करना l जो कुछ किया जाता है, वही कर्म है l इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ 'कर्मफल' भी होता है I दार्शनिक दृष्टि से यदि देखा जाए, तो इसका अर्थ कभी - कभी वे फल होते है, जिनका कारण हमारे पूर्व कर्म रहते है I परन्तु कर्मयोग में कर्म शब्द से हमारा मतलब कार्य ही है I
व्यक्ति का जिन सब शक्तियों के साथ सम्बन्ध में आता है, उनमे से कर्मो की वह शक्ति सबसे प्रबल है, जो व्यक्ति के चरित्र गठन पर प्रभाव डालती है I मनुष्य तो मानो एक प्रकार का केंद्र है, और वह संसार की समस्त शक्तियों को अपनी ओर खींच रहा है तथा इस केंद्र में उन सारी शक्तियों को आपस में मिलाकर उन्हे फिर एक बड़ी तरंग के रूप में बाहर भेज रहा है I यह केंद्र ही 'प्रकृत मानव' (आत्मा ) है ; यह सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ है और समस्त विश्व को अपनी ओर खींच रहा है Iभला -बुरा, सुख-दुःख सब उसकी ओर दौड़े जा रहे है, और जाकर उसके चारों ओर मानो लिपटे जा रहे है I और वह उन सब में से चरित्र - रूपी महाशक्ति का गठन करके उसे बाहर भेज रहा है I जिसप्रकार किसी चीज को अपनी ओर खींच लेने की उसमे शक्ति है, उसी प्रकार उसे बाहर भेजने की भी है Iकेवल वही व्यक्ति सब की अपेक्षा उत्तम प्रकार से कार्य करता है, जो पूर्णतया निस्स्वार्थ है, जिसे न तो धन की लालसा है, न कीर्ति की और न किसी अन्य वस्तु की ही I मनुष्य जब ऐसा करने में समर्थ हो जाएगा, तो वह भी एक बुद्ध बन जाएगा और उसके भीतर से ऐसी कार्यशक्ति प्रकट होगी, जो संसार की स्थिति को सम्पूर्ण रूप से परिवर्तित कर सकती है I वस्तुत : ऐसा ही व्यक्ति कर्मयोग के चरम आदर्श का एक ज्वलंत उदाहरण है I
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