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मान्यवर बंधुओं , मेरी यह तीसरी रचना "मैं और मेरी दुनिया " सच में मेरी दुनिया ही है l जीवन की जिस रह पर मैं चला, जिस जिस मोड़ पर मैं रुका, जो जैसा जैसा सुनाई और दिखाई पड़ा - उसका वैसा वैसा बयां करना मुझे पूरसकूं और खुशनुमा करता गया l आज जीवन के ५६ वे बसंत में भी जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूँ तो बीसियों साल पुराने वाक्यात हूबहू सामने आ खड़े होते हैं जैसे कल ही की बात हो - रचनाएँ सजीव हो उठती हैं l
सत्य तो यह है कि शरीर बूढ़ा हो सकता है पर मन कभी बूढ़ा नहीं होता -
सिर कि सफेदी तब बड़ी अखरती है
जब बाहर होती है अंदर नहीं होती l
और यह तीस हमेशा बानी रही -
किस तरह तेरे पास आने कि कोई तज़बीज़ हो
दूर जाने कि हमेशा कोशिशें जारी रहीं l
हमे हमारी कमजोरियां ही बेचैन और परेशान करती हैं और इन्हीं परेशानियों के चलते जो कुछ भी अध्ययन , मनन से पकड़ में आया वो यही कि जितना हम अपनी कमजोरियों को अस्वीकार करते और छुपाते हैं , उतनी ही हमे यह ज्यादा डराती और बेचैन करती हैं l इन्हें स्वीकार करने पर, आमने सामने खड़े हो जाने पर इनसे निजात पाना संभव है , कम से कम इतनी कटुता तो नहीं रह पाती -
कायल रहा हूँ दोस्तों का दुश्मनों का भी
जहाँ भी मैं गया वो मेरे साथ साथ थे
गर गुणों ने लाज रखी है मेरी
अवगुणों ने भी बढ़ाया है बहुत l
हर बुरे को देखकर के शुक्र कर
हमको समझाता है खुद पे झेलकर l
दूसरों कि खामियों का यूँ मज़ा न लीजिये
आप कि अच्छाइयाँ भी किरकिरी हो जाएंगी l
यदि आप भी इन हालात से कभी रूबरू हुए होंगे या भविष्य में जब कभी भी होंगे तो " मैं और मेरी दुनिया " आपको अपनी ही लगेगी l स्वछन्द रचनाओं की इस पुष्पमाला से आपका अभिनंदन l
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