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तन्त्रम
'तंत्र ' एक विशाल और व्यापक शब्द है और उसी प्रकार उसका अर्थ भी है असीम व्यापक और विशाल I सम्पूर्ण विश्व में जितने भी धर्म है, जितने भी सम्प्रदाय है और जितनी भी साधना - उपासना पद्धतियाँ, सभी 'तंत्र ' की सीमा के अंदर समाविष्ठ है I तंत्र का दृष्टिकोण समन्वयवादी है I वैदिक अर्धवैदिक यहां तक कि अवैदिक साधना उपासना भी चरम परिणीति तंत्र में ही होती है I तंत्र ही एक ऐसा परम् शास्त्र है जो सभी धर्मो के प्रति समभाव रखने वाला और उनका आदर सम्मान करने वाला तथा साधना के सर्वोच्च लक्ष्य को उपलब्ध करने का महान पथ है I
आपको ज्ञात होना चाहिए कि तांत्रिक वाग्यमय अत्यंत विशाल है और उसके दो भाग है - तत्व और साधना I समस्त तांत्रिक वाग्मय के चार स्तम्भ है - विधा (मन्त्र) क्रिया, योग और चर्चा I इन चारो का आधार है ज्ञान I जहां तक तांत्रिक साधना का प्रश्न है वह दो प्रकार की है - अंतरंग साधना और बहिरंग साधना I बहिरंग साधना का मार्ग अति कंटकाकीर्ण है I उस पर चलना तलवार की धार पर चलने की समान है I उस पर चलना तलवार की धार पर चलने की समान है I यदि पहले मार्ग में पूर्ण सफलता प्राप्त हो गई हो तो अंतरंग साधना का मार्ग स्वय सरल और प्रशस्त हो जाता है I
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